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खुशी

six children laughing

Image Courtesy: Pinterest


एक कोशिश, खुद को पढ़ने की - आज यहीं प्रयास करते हैं।

ढूंढते हैं खोए हुए खुद को,

विस्मृत हुए स्वयं को,

अपनी भावनाओं के उलझे-सुलझे गलियारों से निकल कर सामने खड़ा कर देते हैं ‘खुशी ' को|


कभी सन्नाटों के सायों को बिलखते देखा है? 

अश्कों की माला को बिखरते देखा है? 

देखा है सिसकियों के घुँघरुओं को सिहरते हुए? 

फलक से तह तक सड़कते ज्ञाताज्ञात को देखा है?


बहुत गहरी बात हो गई ना? ये पंक्तियाँ किसी एक गुज़री रात ऐसे सुगबुगाते हुए मन में आई कि कलम पकड़ लिया और सोचा इन्हें संजों लूँ अपने पन्नों की छाया में। कहीं किसी रोज़ तो आज शब्दों ने मेहरबानी कर दी थी। मुख्य बिंदु पर आते हुए, मैं चाहती हूँ कि आप सभी बस एक क्षण के लिए अपनी आँखें बंद कीजिए और हृदय पर हाथ रखते हुए सोचिए कि आज सबसे खुश चेहरा आपने किसका देखा था? बस एक पल का काम है, तो आलस की कहानी तो पेटी में बंद ही कर लीजियेगा। क्या दिखा? आपके सहपाठियों में से कोई? या फिर कोई अग्यार जो सड़क पर अपनी धुन में आपके बगल से गुज़र गया? हो सकता है किसी साथी का ही चेहरा आपके मानसपटल पर प्रदर्शित हो गया हो। या फिर कोई बच्चा? किसे देखा आपने? कोई दिखा था, या फिर धुप्प अंधेरा छा गया था आपके सामने...


मैं अपना जवाब बताती हूँ - 

जब मैंने यही सवाल स्वयं से पूछा था, तो मुझे तो सोचना पड़ा था एक मिनट, तब जाकर कहीं लगा कि अच्छा... आज ये खुश था। और मुझे लगता है कि आप सभी को भी समय के जाल ने फांस ही लिया होगा। खैर समय तो सयंमदायक और सयंमहारक दोनों ही है। न्यायनायक! किंतु इस प्रयोग के पीछे तुक क्या था? जवाब है – वर्तमान जीवन की एक रूपरेखा सामने रख देना। हो सकता है भूतकाल में दार्शनिकों के जादू ने खुशी और सहजता जैसी भावनाओं के रस में समाज को घोल दिया हो; किंतु आज खुशी कब मिलती है ये सोचने तक की चाहत किसी में ना रही। उदाहरण देती हूँ -


आते-जाते सड़कों पर अगर किसी साथी का साथ हो तो चाय की टपरी से लेकर ब्रह्मांड की गति तक, हर विषय को टटोल लेते हैं हम। किंतु गर अकेले सड़क नापनी हो तो हममें से कितने अपने आस-पास की दुनिया पर गौर फरमाते हैं?  फोन पर गाने सुनने में, अथवा मन के ख्वाबों के चलचित्र में हम स्वतः डुबकियां लगाने लगते हैं। ठंडी बहती बयार जो बालों पर दस्तक दे निकल जाए। खिलखिलाती चिड़ियों की चहचहाहट जो निष्ठुर मानुष के हृदय में भी गुदगुदी कर जाए, या फिर कुछ नहीं तो एक व्यक्ति जो शायद यहीं किसी कोने में बैठ गिन रहा होगा अपनी दिहाड़ी, हममें से कितनों को एहसास होता है इन सारी वैश्विक इकाइयों का? आज की भाषा में कहूँ तो शायद कोई कवि ही ध्यान देता हो इन सारी चीजों पर। किंतु नहीं, दुःख इस बात का है, कि प्राकृतिक सौंदर्य की वार्ता तो शायद अब कविताओं में भी लुप्त सी हो गई है।  क्यों? क्योंकि आज अमूल्य भावनाओं से अधिक मूल्य भावनाओं को परायणता दी जाती है। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक खुशी से अधिक तो कामयाबी के धागों में ही हम उलझे रहते हैं। कामयाबी से खुशी! खुशी से कामयाबी संभव नहीं? या फिर समाज ने तानाबाना ही ऐसा बुना है कि मन में वस्तुवाद को सर्वोच्च तख़्त दे दिया गया हो। कामयाबी से पैसे -  इज्जत, और परिणामस्वरूप, खुशी। 


क्या बिना पैसों के व्यक्ति को इज्जत नहीं मिलती? आधे से अधिक तो यही कहेंगे कि हाँ, नहीं मिलती। पर मैं कहती हूँ कि इज्जत मिलती है। निर्भर करता है कि आप इज्जत चाहते किनसे हैं? उस जनसमूह से जो उपरोक्त बताए गए कामयाबी से खुशी वाले मापदंड को ही जीवनसत्य मानते हैं, या जो खुशी से कामयाबी पाने के अटल प्रयास में संलग्न हैं?


'खुशी' – कहने को तो दो अक्षरों के संगम का छोटा, नन्हा सा शब्द है ये। किंतु इस कनिष्ठ शब्द की शक्ति तो हम सब ने देखी है। कामयाबी से संलिप्त खुशी की अवधारणा ने विश्व को संवारा तो है, किंतु दोगुनी गति से उजाड़ा भी है। तनाव का जनक हीं ये मापदंड हैं। याद है जब हम छोटे हुआ करते थे, बिल्कुल छोटे, तब हम खुश कब होते थे? मैं तो तब, जब मुझे कोई तोता उड़ते हुए दिख जाए या फिर जब बारिश हो जाए। आह! क्या खुशी मिलती थी बारिश की बूंदों को बस के शीशों पर आकार देते हुए। खुशी… शुद्धता से पूर्ण खुशी। 


आज कितना भी हँस लूँ पर वो संतुष्टि कहीं गायब सी हो गई है, इसलिए क्योंकि हर पल जीना भूल गई हूँ मैं, और शायद हम सब। ‘क्षण - क्षण जीती हूँ मैं जीवन’ – ये अवधारणा तो आज रूढ़िवादी मान ली गई है। और यही कारण है बढ़ती भ्रांतिपूर्ण खुशी और मानसिक अवसाद का। अवसाद, जो जीवन को प्रश्नसूचकों से भर देता है और मन में आ रही दुविधाओं को वास्तविक परेशानियों के लिबाज़ में भरने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। हताशा, व्याकुलता, अलगाव, बिखराव, ये सभी हमारी कहानी के मुख्य पात्र बन जाते हैं और जीवन को नरकीय बनाकर हीं छोड़ते हैं।


अतः इतना पढ़ने के बाद आपका सवाल यही होगा कि ये लुका-छिपी खेल रही खुशी को मैं ढूंढूँ कहाँ? तो एक आसान सा काम करते हैं। एक कुर्सी लीजिए, और आज शाम पहुँच जाइए किसी बालकनी में अपने हॉस्टल की और सामने खुला आसमाँ जहाँ दिखे उधर बैठ जाइए। हो गया? तो अब पालथी मारीए और आँखें बंद कर के आस-पास की प्रकृति को सुनिए। उसकी छनछनाहट, झंकार, बहती बयार की बाँसुरी, और चिड़ियों की मीठी आवाज़। जब रोम- रोम कुदरत की भव्यता से आच्छादित हो जाए, और कुछ क्षणों के लिए ही भले, किंतु आपको अपरिमेय आनंद की अनुभूति हो, तो समझ लीजियेगा कि आपने पहला कदम उठा लिया है शांति और खुशी की ओर। अपने आस-पास की विराटता देख संभवतः क्षणभंगुर खुशी की दुविधा आपको थोड़ी सी तो समझ आ ही गई होगी।


हूँ तो मैं भी एक पथिक ही! सीख रही हूँ जीवन जीने की कला। 

हँस रही हूँ, रो रही हूँ, समझ रहीं हूँ, समझा रहीं हूँ, खुशी को। दो अक्षरों के नन्हे शब्द को निरर्थक बनने से बचाने के लिए बौखला रहीं हूँ। ताकि जब, पुनः सड़कों से गुज़रू तो मायूस शाम पुनः रंगीन हो जाए और थकती हवा को हम में हीं कोई साथी मिल जाए। गर ऐसा संभव हो जाए तो क्या हीं कहना हो इस शाम का, इस आराम का। 

 

लेखिका: आयुषी कुमारी

मैं, आयुषी, इतिहास विभाग की प्रथम वर्ष की छात्रा हूं। हिंदी से लगाव के कारण हमेशा कोशिश करती रहती हूं की शब्दों के धागों से परिस्थितियों को स्पष्टता से बुन सकूं। जो जैसा है उसे वैसे ही दिखा सकूं।


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